Monday, January 12, 2009

तो चले फिर !

कविता
बहुत साल
तुम नहीं मिली मुझे
हम दोनों ही एक दूसरे को नहीं मिले
कितनी ही उनीदी रातों में
कभी न बंद होने वाली आँखे लिए
बोझिल नींद के बेचैन सपनो में
हर करवट के साथ
मैंने ढूंढा तुम्हे
उदास शामों में
पुराने कागजों के बहाने
बेइन्तिहाँ टटोले
बीते दिन
तुम्हारे निशाँ ही मिले बस
तुम नहीं
मैं बार बार तुम्हे ढूंढती रही
आख़िर एक सुबह
एक परिंदे से
तुम्हारा पता मिला
यूँ बंद कमरे के
रूखे दरवाज़े
गर्म बिस्तर पर
तुम मिलने नहीं आती
तुम्हे मिलने को तो
चाँद वाली रातों में
पहाडो पर टहलना होता है
तुम्हारे साथ रहने को तो
सूरज के जागने से पहले ही जगे
परिंदों के साथ
पहाड़ से पहाड़ उड़ना होता है
तुम बेहद घुम्क्कर निकली कविता

4 comments:

  1. कविता का पता नही चलता हमें भी बहुत दिन से कोई कविता लिखने की कोशिश कर रहे हैं असफल होते जा रहे हैं

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  2. nishchit roop se aap bulandiyon ko chhuyengi. mehnat karte rahna. najar zamin par, lakin irade aasman ke rakhna. bechaini bahut dikhai deti hai, kranti bhi hogi..........shanti bhi hogi.

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  3. निधि क्‍या आप बता सकती हैं कि यह कविता किसकी है, वैसे अच्‍छी कविता है...

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